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{{KKRachna
|रचनाकार=अभिषेक कुमार सिंह
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<poem>
बना के ख़्वाब का नीला मकान ठहरा है
जमीन चल रही है आसमान ठहरा है

फँसाये देर से साँसत में जान ठहरा है
गगन के बीच कहीं वायुयान ठहरा है

तरक्की की यहाँ सड़कें तो दौड़ती हैं मगर
उदास मेड़ पर गुमसुम किसान ठहरा है

हजार फॉर्म यहाँ भर चुके हैं हम लेकिन
हमारी मुश्किलों का इम्तहान ठहरा है

सफर की उलझनें दिलचस्प हो गईं हैं मेरी
भविष्य दूर है और वर्तमान ठहरा है

सफलता खिल के वहाँ ख़ुशबुएँ बिखेरेगी
जहाँ पर कोशिशों का बागवान ठहरा है

मैं जानता हूँ कि मंज़िल करीब है लेकिन
अभी भी रास्तों पर मेरा ध्यान ठहरा है
</poem>
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