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क़ैद करने चला है हवाओं को वो,
अनसुनी कर रहा सब सदाओं को वो।

हुक्म है अब न मौजें मचलकर बहें,
हर समय तोलता है वफाओं को वो।

चाहती हो बरसना इजाज़त लो तुम,
कह रहा है हमेशा घटाओं को वो।

हर दिशा गूँजती है उसी की जुबाँ,
बाँधना चाहता है दिशाओं को वो।

जब चलीं आँधियाँ तो लगा चौंकने,
दोष देने लगा फिर फजओं को वो।

अब भड़कने लगी जंग की आग है,
कोसने है लगा शूरमाओं को वो।

लुट रही आबरू बेटियों की यहाँ,
मुँह दिखाए ‘अमर’ कैसे माँओं को वो।
</poem>
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