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<poem>
अपने पुरखों ने पाई थी लड़ मर कर जो आज़ादी,
देख रहा हूँ बचपन से ही होती उसकी बर्बादी।
बापू ने सबको सिखलाया प्यार से मिलकर रहना था,
पर अब खेलें खून की होली भूल सबक़ हम बुनियादी।
हँसकर प्राण निछावर करने की थी होड़ शहीदों में,
वीर सपूतों की गाथा सुन कांप गई थी जल्लादी।
‘बोस’ ‘भगत’ ‘आज़ाद’ बने थे यौवन के आदर्श मगर,
आज नहीं रहबर कोई कोटि सवा सौ की आबादी।
हर चौराहे पर देखो मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे हैं,
लेकिन रूठे देव सभी अब जाएँ कहाँ हम फ़रियादी।
हिन्दू मुसलिम बाभन बनिये और दलित ओबीसी क्यों,
हिन्दोस्तानी होकर भी हैं आज बने सब उन्मादी।
मत बैठो तुम यूँ थककर कोशिश अपनी जारी रक्खो,
मिल जाए इन्सान ‘अमर’ तो फिर हो जश्ने आज़ादी।
</poem>