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|संग्रह=दीवान-ए-मधुमन / मधु 'मधुमन'
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<poem>
भले नहीं है मेरे बख़्त में ज़ुक़ा की ज़िया
है मेरे साथ मगर माँ की मामता की ज़िया

क़दम क़दम पर मुझे रास्ता दिखाती है
फ़लक के पार से माँ बाप की दुआ की ज़िया

ये ज़िंदगी की डगर किस क़दर अँधेरी हो
न हो बशर में जो मौजूद आत्मा की ज़िया

हर एक पर तो ये रहमत नहीं हुआ करती
नसीब वालों को मिलती है इत्तिक़ा की ज़िया

ये और बात है दिखती नहीं हमें लेकिन
हर एक रूह में होती है चेतना की ज़िया

वो पा ही लेते हैं इक रोज़ नेमतें रब की
दिलों में रखते हैं जो लोग आस्था की ज़िया

है रंग रूप भले मुख़्तलिफ़ मगर ‘मधुमन’
हर एक जीव में है एक ही ख़ुदा की ज़िया
</poem>
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