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|रचनाकार=मधु 'मधुमन'
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|संग्रह=उजालों का सफ़र / मधु 'मधुमन'
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<poem>
चमन से ख़ुशबूओं का इस्तिआरा ले गया कोई
हमारे गुलिस्ताँ से रंग सारा ले गया कोई

हमें जो राह दिखलाता था जीवन के अँधेरों में
हमारे आसमाँ से वह सितारा ले गया कोई

बहुत वीरान रहता है फ़लक आँखों का ये जब से
चुरा कर इससे इसका माह पारा ले गया कोई

भला अब ज़िंदगी में देखने को क्या रहा बाक़ी
जो भाता था हमें वह हर नज़ारा ले गया कोई

लगेगी पार कैसे नाव ये अब नाखुदा जाने
इसे मँझधार में रख कर किनारा ले गया कोई

बदल देता था जो मेंढक को इक राजा की सूरत में
जहाँ से अब वह जादू का पिटारा ले गया कोई

दिले-बेचैन को ‘मधुमन ‘क़रार आए भी तो कैसे
सुकूँ तो छीन कर हमसे हमारा ले गया कोई
</poem>
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