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|रचनाकार=मधु 'मधुमन'
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|संग्रह=लम्हों की फुलकारी / मधु 'मधुमन'
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<poem>
चंद लम्हों में ही सदियों का नज़ारा कर लिया
जो मिला जितना मिला हँस कर गुज़ारा कर लिया

जब तलक आज़ाद बहती थी बहुत मीठी थी वो
मिल के सागर में नदी ने ख़ुद को खारा कर लिया

ख़ुश्बूएँ देने के क़ाबिल हो गया जब गुल तो फिर
उसने इक दिन बाग़बाँ से ही किनारा कर लिया

उम्र गुज़री तो सुना वह घर हमारा ही नहीं
जिसकी ख़ातिर हमने ख़ुद को पारा-पारा कर लिया

अब ख़ता कह लें इसे या दिल की नादानी कहें
चोट खा कर भी यक़ीं उस पर दुबारा कर लिया

और तो मिलता भला क्या फ़िक्र करने से हमें
बोझ अपने दिल का ही कुछ और भारा कर लिया

क्या करें ‘मधुमन ‘कि फ़ितरत से ही कुछ ऐसे हैं हम
सबकी ख़ुशियों के लिए अपना ख़सारा कर लिया
</poem>
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