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{{KKRachna
|रचनाकार=मधु 'मधुमन'
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|संग्रह=धनक बाक़ी है / मधु 'मधुमन'
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<poem>
सामना यूँ हर बला का हँस के कर जाते हैं हम
बात जब अपनों पर आती है तो डर जाते है हम

जब भी हम करते हैं समझौते किसी से ज़ीस्त में
क्या कहें अपनी ही नज़रों से उतर जाते हैं हम

जानते तो हैं कि अब रहता नहीं कोई वहाँ
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाते हैं हम

दिन में इक मज़बूत-सा किरदार दिखते हैं मगर
शाम ढलते ही न जाने क्यूँ बिखर जाते हैं हम

याद करने बैठते हैं जब गुज़िश्ता वक़्त को
जाने कितने कर्ब से हो कर गुज़र जाते हैं हम

हादसों के सिलसिले यूँ क़ह्र ढाते हैं कि बस
साँस तो चलती है पर अंदर से मर जाते हैं हम

लाख तूफ़ानों में कश्ती हो घिरी ‘मधुमन’ मगर
हौसलों के दम पर दर्या पार कर जाते हैं हम
</poem>
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