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|रचनाकार=मधु 'मधुमन'
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|संग्रह=वक़्त की देहलीज़ पर / मधु 'मधुमन'
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<poem>
हमारी इस धरोहर को बचा कर कौन रक्खेगा
किताबों को यूँ सीने से लगा कर कौन रक्खेगा

जमाने भर की मालूमात से वाक़िफ़ हैं ये बच्चे
तो अब मासूम बचपन को बचा कर कौन रक्खेगा

दीवारें उठ गयीं आँगन में पर अब मसअला है ये
कि इक बूढ़े शजर को घर में ला कर कौन रक्खेगा

मुअत्तर है जो ये गुलशन बदौलत बागबाँ की ही
वगरना प्यार से यूँ गुल खिला कर कौन रक्खेगा

हवस की होड़ में हमने कभी सोचा नहीं क्यूँकर
हवा पानी बिना जीवन बचा कर कौन रक्खेगा

ज़रा सोचो जहाँ वालों अगर बेटी नहीं होगी
मकाँ को प्यार से फिर घर बना कर कौन रक्खेगा

मुनव्वर हैं जो ये राहें दुआएँ माँ की हैं ‘मधुमन’
वगरना तीरगी से यूँ बचा कर कौन रक्खेगा
</poem>
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