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{{KKRachna
|रचनाकार=अमर पंकज
|अनुवादक=
|संग्रह=लिक्खा मैंने भोगा सच / अमर पंकज
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<poem>
तेरे नाम सजी है महफ़िल आज कई चौबारों में,
लेकिन मैंने ढूँढ़ा तुझको नैनों के गलियारों में।

खिल जातीं मुरझाईं कलियाँ जब तू नगमे गाता है,
बस जाता सबके दिल में तू शामिल है दिलदारों में।

रातों में महफ़िल सजती दीवाली होती रिंदों की,
ऐसे-ऐसे सच हैं जो दिखते न कभी उजियारों में।

रेत समय की जब उड़ती हर ओर अँधेरा छाता है,
तब तू दीप जलाने जाता खँडहर के अँधियारों में।

छिपकर तू मैख़ाने जाता कुछ तो होगी मजबूरी,
कहते सब तू खोया रहता पायल की झन्कारों में।

शायर भी है आशिक भी है बच्चा तेरे अंदर का,
दिल के दरवाज़े से आता कितने ही किरदारों में।

दिल तो दिल है कैसे कह दूँ कब किस पर आ जाए ‘अमर’,
ख़ास ख़लिश दिल में रह जाती हर युग के फ़नकारों में।
</poem>
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