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{{KKRachna
|रचनाकार=अमर पंकज
|अनुवादक=
|संग्रह=हादसों का सफ़र ज़िंदगी / अमर पंकज
}}
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<poem>
हर तरफ़ है मौत लेकिन प्यास बाक़ी है अभी,
ज़िंदगी की जीत होगी आस बाक़ी है अभी।

ये सफ़र कैसा सफ़र है ख़त्म होता ही नहीं,
ज़ीस्त के हर मोड़ पर बनवास बाक़ी है अभी।

धूप ओले आँधियाँ तूफ़ान सब मैं सह गया,
खंडहर-सा हूँ पड़ा अहसास बाक़ी है अभी।

आज हैं तन्हाइयाँ गुलज़ार था गुज़रा जो कल,
ज़िंदगी सौगात है विश्वास बाक़ी है अभी।

भीड़ है उमड़ी सड़क पर याद आया फिर वतन,
हमवतन हैं साथ पर उच्छ्वास बाक़ी है अभी।

अनवरत चलना मुझे है थक नहीं सकता हूँ मैं,
हादसों में हौसला बिंदास बाक़ी है अभी।

लॉकडाउन से करोना की लड़ाई लड़ रहा,
भूख से तू लड़ ‘अमर’ उपवास बाक़ी है अभी।
</poem>
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