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<poem>
घाट से दूर जाने लगी है नदी,
रेत में अब नहाने लगी है नदी।

दौड़ते- दौड़ते हाँफते - हाँफते,
धड़कनों को छुपाने लगी है नदी ।

पार जाना जिसे बा-कदम जाइये,
भीगने से बचाने लगी है नदी।

दाग धोती रही हर लहर रात-दिन,
आज दामन बचाने लगी है नदी।

अब लहर का नहीं रेत का मोल है,
नींद में थरथराने लगी है नदी ।

आग- अंगार को, धूप को, ख़ार को,
आँधियों को सुहाने लगी है नदी ।

ज़ख़्म के हैं निशां बोलते जिस्म पर,
हर नज़र के निशाने लगी है नदी ।
</poem>
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