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'''मोना गुलाटी की कविता और यौन-प्रतीक'''

मोना गुलाटी की कविताएँ भी अश्‍लीलता के स्तर पर सेक्स-प्रतीकों की रचना करती हैं। जहाँ धूमिल स्‍त्री-योनि, लिंगबोध और मादा शब्द का प्रयोग करते हुए अनेक बार वर्जित क्षेत्रों में प्रवेश कर जाते हैं, वहीं मोना गुलाटी अकविता के सेक्स प्रतीकों से कविता को तार-तार कर देती हैं –

मैं इन्तज़ार करती हूँ रात का
जब हम दोनों एक दूसरे को चाटेंगे
विवाह के बाद ज़िन्दा रहने के लिए
जानवर बनना बहुत ज़रूरी है ।

अथवा – ’रति क्रिया करने के लिए आकाश यदि गहरा हो जाए… तो भी वह नहीं दे पाएगा अण्डा’ जैसे प्रयोग सोचने के लिए विवश करते हैं कि क्या इन कवियों के पास और कोई विकल्प नहीं है? क्यों मोना गुलाटी ‘पूरी पीढ़ी बंजर हो … और नहीं आकांक्षा’ कहकर किसी के जीवन या मृत्यु की मात्र निषेध को ही जीवन का सत्य मान लेती हैं?
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