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|रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स
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मुझे टूटना भाया
मुझे टूटना भाया
बहुत दिनों तक चंचल मन से
मिलता रहा मुक्त जन-जन से
देखे प्रेम-प्रणय के सपने
सबसे हँसा-हँसाया
प्रतिभा की निष्फल छाया में
क्षणिक अमरता की माया में
तरल उमंगों की लय देकर
मन को खूब नचाया
स्वजन अर्थ-बल-वैभव कामी
मैं बस भाव विभव का स्वामी
यही एक अभिशाप आज मैं
अपने लिए पराया
मैं जन की पीड़ा का गायक
जन का सेवक जन का नायक
पथ के कंटक देख अभी से
इतना क्यों अकुलाया
मुझे टूटना भाया
</poem>