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|रचनाकार= पूनम चौधरी
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<poem>
तुम धरती से गुँथे
किसी मौन देवता की तरह
मेरे जीवन के वटवृक्ष रहे—
जिसकी छाया
मेरे बालमन के लिए
किसी मन्दिर की अर्चना-सी थी।
मैं, एक कोमल बेल—
अनभिज्ञ,
पर तुमसे लिपटी हुई
जैसे प्रश्न किसी उत्तर से जुड़ जाए।
तुम्हारे शब्द
न आदेश बने,
न प्रताड़ना,
न अवहेलना की कोई छाया।
वे तिरते थे हवा में
किसी ऋचा की तरह,
जो चुपचाप मेरे भीतर उतरते चले जाते।
तुमने सिखाया—
धरती को सखी बनाना,
मन से बातें करना,
और समझाया कि
सारे उत्तर व्योम से मिलेंगे।
इसीलिए तो
मैं हर रात
तारों की भाषा पढ़ने लगी—
वैसे ही,
जैसे तुम्हारी हथेली पर
लिखे अक्षर पढ़ती थी।
तुम्हारी कमीज की जेब में
जो सिक्के रखे होते,
वे मेरे लिए आकर्षण नहीं,
उत्तर होते थे—
मेरी बाल-जिज्ञासाओं के,
जिन्हें तुम चुपचाप
उन जेबों से निकाल
बाँट देते थे मुस्कान सहित।
तुम्हारे पसीने की गंध से भीगा रुमाल
मेरे लिए देववसन था—
उसमें बसता था तुम्हारा संघर्ष,
तुम्हारा जीवट,
तुम्हारी चेतना।
तुम्हारा मौन
मेरे जीवन का प्रथम शास्त्र बना,
जिसमें स्मृति, वेदना,
और अपार प्रेम
तीनों उगते थे
किसी अग्निहोत्र की तरह—
दग्ध भी करते,
दीप्त भी।
तुम्हारी मृत्यु ने
मुझे केवल तुम्हारी अनुपस्थिति नहीं दी—
बल्कि भर दिया
एक ऐसा शून्य
जो धीरे-धीरे
तुम्हारी भाषा सिखा रहा है।
अब जब मैं नदी के तट पर खड़ी होती हूँ,
तो मेरी दृष्टि
उसके बहाव में नहीं—
तुम्हारे चलने में ठहरती है।
तुम्हारे माथे पर छुए
अंतिम स्पर्श की स्मृति
हर शाम लौटते पंछियों के संग
मेरे पास लौट आती है।
तुम्हारे जाने के बाद जाना—
कि देह का अंत होता है,
पर स्मृति की ज्वाला
कभी नश्वर नहीं होती।
तुम मृत्यु में नहीं,
मेरे निर्णयों में समाहित हो—
एक अंतर्घट राग की तरह,
जो केवल भीतर
और बहुत धीरे से
सुनाई देता है।
अब मैं केवल तुम्हारी बेटी नहीं—
तुम्हारा उत्तर हूँ,
तुम्हारी अधूरी यात्राओं की संपूर्णता,
तुम्हारी वाणी की दीर्घ प्रतिध्वनि।
तुम्हारा कहा—
“हर आँसू जल नहीं,
वह ईश्वर की आँख का संकेत है”—
अब समझ में आता है,
जब कभी मैं
बिना कारण रो पड़ती हूँ।
तुमने मुझे लक्ष्मी नहीं कहा,
कहा— “तू संध्या है,
जिसके सम्मुख समय भी नत होता है,
क्योंकि वह दिन का त्याग है
और रात्रि की भूमिका।”
अब मैं
हर संताप को
तुम्हारे आशीष की भट्ठी में पिघलाती हूँ,
हर स्मृति को
प्रार्थना की तरह बोलती हूँ,
और हर मौन को
तुम्हारा संकेत मानकर
जीवन के काँधे पर रख लेती हूँ।
तुम अब नहीं हो—
फिर भी
हर शांत दोपहर,
हर क्लांत साँझ,
हर तर रात्रि में
मैं तुम्हारी छाया ओढ़ लेती हूँ।
अब मैं तुम्हारी पुनरावृत्ति हूँ—
पुत्री नहीं,
एक ऐसा अस्तित्व
जो तुम्हारे स्पर्श से
मृत्यु को भी उजास में
परिवर्तित कर सकता है.
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तुम धरती से गुँथे
किसी मौन देवता की तरह
मेरे जीवन के वटवृक्ष रहे—
जिसकी छाया
मेरे बालमन के लिए
किसी मन्दिर की अर्चना-सी थी।
मैं, एक कोमल बेल—
अनभिज्ञ,
पर तुमसे लिपटी हुई
जैसे प्रश्न किसी उत्तर से जुड़ जाए।
तुम्हारे शब्द
न आदेश बने,
न प्रताड़ना,
न अवहेलना की कोई छाया।
वे तिरते थे हवा में
किसी ऋचा की तरह,
जो चुपचाप मेरे भीतर उतरते चले जाते।
तुमने सिखाया—
धरती को सखी बनाना,
मन से बातें करना,
और समझाया कि
सारे उत्तर व्योम से मिलेंगे।
इसीलिए तो
मैं हर रात
तारों की भाषा पढ़ने लगी—
वैसे ही,
जैसे तुम्हारी हथेली पर
लिखे अक्षर पढ़ती थी।
तुम्हारी कमीज की जेब में
जो सिक्के रखे होते,
वे मेरे लिए आकर्षण नहीं,
उत्तर होते थे—
मेरी बाल-जिज्ञासाओं के,
जिन्हें तुम चुपचाप
उन जेबों से निकाल
बाँट देते थे मुस्कान सहित।
तुम्हारे पसीने की गंध से भीगा रुमाल
मेरे लिए देववसन था—
उसमें बसता था तुम्हारा संघर्ष,
तुम्हारा जीवट,
तुम्हारी चेतना।
तुम्हारा मौन
मेरे जीवन का प्रथम शास्त्र बना,
जिसमें स्मृति, वेदना,
और अपार प्रेम
तीनों उगते थे
किसी अग्निहोत्र की तरह—
दग्ध भी करते,
दीप्त भी।
तुम्हारी मृत्यु ने
मुझे केवल तुम्हारी अनुपस्थिति नहीं दी—
बल्कि भर दिया
एक ऐसा शून्य
जो धीरे-धीरे
तुम्हारी भाषा सिखा रहा है।
अब जब मैं नदी के तट पर खड़ी होती हूँ,
तो मेरी दृष्टि
उसके बहाव में नहीं—
तुम्हारे चलने में ठहरती है।
तुम्हारे माथे पर छुए
अंतिम स्पर्श की स्मृति
हर शाम लौटते पंछियों के संग
मेरे पास लौट आती है।
तुम्हारे जाने के बाद जाना—
कि देह का अंत होता है,
पर स्मृति की ज्वाला
कभी नश्वर नहीं होती।
तुम मृत्यु में नहीं,
मेरे निर्णयों में समाहित हो—
एक अंतर्घट राग की तरह,
जो केवल भीतर
और बहुत धीरे से
सुनाई देता है।
अब मैं केवल तुम्हारी बेटी नहीं—
तुम्हारा उत्तर हूँ,
तुम्हारी अधूरी यात्राओं की संपूर्णता,
तुम्हारी वाणी की दीर्घ प्रतिध्वनि।
तुम्हारा कहा—
“हर आँसू जल नहीं,
वह ईश्वर की आँख का संकेत है”—
अब समझ में आता है,
जब कभी मैं
बिना कारण रो पड़ती हूँ।
तुमने मुझे लक्ष्मी नहीं कहा,
कहा— “तू संध्या है,
जिसके सम्मुख समय भी नत होता है,
क्योंकि वह दिन का त्याग है
और रात्रि की भूमिका।”
अब मैं
हर संताप को
तुम्हारे आशीष की भट्ठी में पिघलाती हूँ,
हर स्मृति को
प्रार्थना की तरह बोलती हूँ,
और हर मौन को
तुम्हारा संकेत मानकर
जीवन के काँधे पर रख लेती हूँ।
तुम अब नहीं हो—
फिर भी
हर शांत दोपहर,
हर क्लांत साँझ,
हर तर रात्रि में
मैं तुम्हारी छाया ओढ़ लेती हूँ।
अब मैं तुम्हारी पुनरावृत्ति हूँ—
पुत्री नहीं,
एक ऐसा अस्तित्व
जो तुम्हारे स्पर्श से
मृत्यु को भी उजास में
परिवर्तित कर सकता है.
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