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|रचनाकार=भव्य भसीन
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<poem>
अब मोसे और रहा नहीं जाए।
अब सखी और सहा नहीं जाए।
पद पंकज बिनु हृदय है प्यासा,
सेवऊँ कैसे हाय कैसी निराशा।
अब ये प्राण धरा नहीं जाए,
अब मोसे...
तड़पत हिय हाय निसि दिन दुखे,
कल सो नैना रो-रो सूखे।
नैना रे अंसुवन बहा नहीं पाए,
अब मोसे...
साज सिंगार मैं कर लू पूरा,
ओढूँगी अब रंग सुनहरा।
आधा अधूरा न उनको भाए,
अब मोसे...
उनके लिए पीड़ा लाख है पाई,
सब छोड़ा प्राण देने आई।
अब ये पीड़ सही नहीं जाए,
अब मोसे
</poem>