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<poem>
इच्छा वांछा एक तुम्हारे सुख की प्रियवर करती हूँ।
नित ही प्राणों के क्रंदन से प्राणेश्वर मैं मरती हूँ।
तुम सजल नेत्रों से देख कर करते हो परिवर्तन मुझमें।
मैं स्वयं को राधा मान बैठती हूँ ऐसे ही पल भर में।
भाव राधिका के कोई न जान सका न कोई जानेगा,
पर उच्छिष्ट उन्हीं भावों का लेकर महान प्रेम फ़िर जागेगा।
सुधि स्वयं की भूली जब तब राधा ही दिखलाई दी।
हे श्याम तुम्हारी सहज कृपा ने मुझ पत्थर-सी पिघला ही दी।
प्रेम की वीणा हृदय मेरे में, तुमने कृष्ण बजा ही दी।
क्षण भर की ही तुमने बाला, राधा ये बना ही दी।
</poem>
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