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|रचनाकार=भव्य भसीन
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<poem>
मैं पागल मैं पागल कान्हा मैं पागल हूँ पागल।
नाचूँ, गाऊँ, चिल्लाऊँ तुझे देख देख पगलाऊँ कान्हा,
मैं पागल मैं पागल कान्हा मैं पागल हूँ पागल ।
अधर कपोल से रस पी पी कर,
मदमाती आँखियों में गिर कर,
चितवन चारु से छिद भिद कर,
बह जाऊँ मद की बाढ़ में कान्हा।
मैं पागल मैं पागल कान्हा मैं पागल हूँ पागल ।
कारे केश पाश में फँस कर,
कर दोवें फेरूं हँस हँस कर,
श्रुतिपटल में नेह रस ठस कर,
आकुलता में मर जाऊँ कान्हा।
मैं पागल मैं पागल कान्हा मैं पागल हूँ पागल।
चूम कपोल भाल दिन रैना,
हिय से तोरे लिपटे रहना,
सिहरन गात थर्राए बैना,
न व्यग्र भाव सह पाऊँ कान्हा।
मैं पागल मैं पागल कान्हा मैं पागल हूँ पागल ।
रूप रसीलो सरस सुधा रस,
बतियाँ मीठी तव मीठो स्पर्श,
डूबी रस सागर मत्स्य जस,
एक ही राग मैं गाऊँ कान्हा।
मैं पागल मैं पागल कान्हा मैं पागल हूँ पागल।
</poem>