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{{KKRachna
|रचनाकार=भव्य भसीन
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
धूसर शाम घड़ियाँ गिन रही है।
उदास हवा थक के चूर है।
नीला सावन बीत जाने से,
हरे पत्ते मुरझा गए हैं।
लाल आँखे इंतज़ार में सो न सकी।
स्याही फ़िर से काले हर्फ़ उगल रही है।
सारे रंग रो रो धुल गए,
पर आज रंग है सखी, आज रंग है।
</poem>
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|संग्रह=
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धूसर शाम घड़ियाँ गिन रही है।
उदास हवा थक के चूर है।
नीला सावन बीत जाने से,
हरे पत्ते मुरझा गए हैं।
लाल आँखे इंतज़ार में सो न सकी।
स्याही फ़िर से काले हर्फ़ उगल रही है।
सारे रंग रो रो धुल गए,
पर आज रंग है सखी, आज रंग है।
</poem>