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|रचनाकार= पूनम चौधरी
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हे ईश्वर,
कहाँ हो तुम?
वहाँ, जहाँ गूँजते हैं शंखनाद,
झिलमिलाती हैं दीपमालाएँ!
या
वहाँ, जहाँ भूख से व्याकुल बच्चे
रोटी को ही ईश्वर मान लेते हैं?

हमें नहीं पता—
तुम्हें किसने देखा है?
तुम्हें किसने पाया है?
कहाँ-कहाँ हो तुम?
वेदों की वाणी में?
मस्जिद की अजान में?
गिरजा के घंटों में?
या
गुरुद्वारों की अरदासों में?

या
तुम व्याप्त हो
प्रेम, करुणा और
संवेदना में, सर्वत्र?

हे ईश्वर!
कहाँ खोजें तुम्हें?
क्योंकि हमने तुम्हें—
गढ़ा है पत्थरों में,
बाँधा है ग्रंथों में,
समेटा है अपनी
स्वार्थ भरी प्रार्थनाओं में,
या
झोंक दिया है युद्धों में...!

फिर भी,
जब टूटते हैं,
छूटते हैं,
ढूँढते हैं
दुख के अँधेरे में
आस का कोई छोर,
तुम्हीं को पुकारते हैं—
क्योंकि यह अनुभूति है
कि तुम हो...!

इसलिए, चले आओ!
हमें सिखाओ मनुष्य होना,
हमें बनाओ योग्य कि
पोंछ सकें अश्रु
उस निरीह बालक के,
जिसकी रोटी
किसी अमीर की थाली की
बची हुई जूठन है।

हमें सिखाओ कि
बचा सकें जीवन उस अजन्मे का,
जो सिर्फ लड़की होने का दंड
प्राणों से चुकाएगी।

आओ, चले आओ,
और
भर दो शक्ति और सामर्थ्य
उस श्रमजीवी के हाथों में,
जो पत्थर से गढ़ देता है महल,
पर तरसते हैं उसके बच्चे
छत के लिए...!

आओ,
सिखा दो मनुजता,
मनुष्य के हृदय में बसकर,
क्योंकि इस संसार को
अब किसी शक्ति और चमत्कार से अधिक
आवश्यकता है संवेदना की...!
-0-
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