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<poem>
एक शाम, लड़ाई की ख़बर सुनाता रहा रेडियो
आँखों में दर्द का समुद्र उमड़कर
उलझन में उडती रही हवा
पीड़ा में सिसकता रहा क्षितिज

उसके बाद सूख गई समय की लम्बी नदी
वापस नहीं आए युद्ध में गए लोग

दिनभर यह हिमालय
सफेद वस्त्र में किसी बेवा के जैसा ऊँघता है
उसके चेहरे पर तकते रहते हैं पड़ोसी पहाड़
छेड़कर भागती है चंचल हवा
उस पार पहाडी पर खड़े अधेड़ पेड़
कमर लचकाते नाचते हुए आकर्षित करते रहते हैं

एक रोज़ सुबह
माथे पर धूप का लाल टिका सजाए
माँग पर किरण के सुनहरे सिन्दूर लगाए
गालों पर लाली पोतकर
निकल पड़ी एक नयी यात्रा पर

देखते ही देखते स्वागत में निर्मल आकाश फैला
मुस्करा उठी धरती उज्ज्वलमय।
</poem>
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