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दिलबहादुर माँझी
नारायणी में दिनों को खेता है
पानी के गाँव में रमता है
पानी की गली-गली घूमता है
रंगहीन
स्वादहीन
आकारहीन
व्यतीत करता है पानी जैसा जीवन

सुबह समाचारपत्र आते हैं
देश की अस्त–व्यस्त खबरें लेकर
झोंपड़ी की छत पर रखा हुआ
बूढ़ा रेडियो खरखराता है कुशासन के समाचार
दिलबहादुर माँझी
सिलवट पड़े माथे को उठाये थकान मारता है
छापता रहता है अपने मन में उन प्रतिबिंबों को
जो उठाते हुए है आँखों में घर–परिवार
सजाकर दिल की दीवारों में देश
गये हैं परदेस गहरी नारायणी को पार कर

यहाँ के चौक क्रोध में चिल्लाते हैं
सड़कें बन्द हड़ताल में शामिल हैं
है यह समय विपदाग्रस्त
दिलबहादुर बनाता रहता है अनेक कैनवास
घरों की देखभाल करतीं वे बूढ़ी आँखें
जवान रातों का इन्तजार करती अधूरी सुहागरात
पिता के चुम्बन को लालायित अबोध गाल

नारायणी के किनारे अकेले-अकेले
दिलबहादुर माँझी देखता है
अनेक चिंतित मज़दूर शहर को जाते हैं
अनेक अभावग्रस्त जीवन सीमा पार करते हैं
वह विचारों के ज़ाल में पकडता रहता है-
परदेस में बहते खून-पसीने का सस्ता मोलभाव
वीरान रण में “आया गोरखाली” का चिढ़ाता नाद, और
मुम्बइया रेडलाइट एरिया का अन्धेरा

यह देश दुखता है बूढे माँझी की छाती में जैसे
अनगिनत दिलों में
छप्ल्याङ छुप्लुङ
छप्ल्याङ छुप्लुङ।
</poem>
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