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वक़्त के ताबूत में सिमट नहीं पाते हैं
गर्म उसके हाथ । लाल फूलों से
ढका पड़ा रहता है सिकुड़ा हुआ
उसका पूरा जिस्म एक अन्धेरे कोने में ।
ख़ासकर बुझी हुई आँखों के पीले
तालाब । ख़ासकर टूटे हुए
स्तनों के नीले स्तूप ।
लेकिन सफ़ेद उसके गर्म हाथ
ताबूत के बाहर थरथराते
रहते हैं !
(’मुक्तिप्रसंग’ नामक लम्बी कविता का प्रसंग ११)
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