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|रचनाकार=पूनम चौधरी
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रेत बहती नहीं —
वह बहा दी जाती है।
जिसे बहाव कहते हैं,
वह दरअसल
किसी और की दिशा में किए गए
सहमत न होने वाले
सहमतियों का परिणाम होता है।

नदी का पानी
कभी रेत से नहीं लेता परामर्श
वह सिर्फ बहता है —
निर्णय की तरह।
और रेत,
उसके नीचे
चुपचाप परत-दर-परत
अस्तित्व गँवाती रहती है।

‘‘हम नदी की रेत हैं’’
यह सिर्फ एक रूपक नहीं,
बल्कि समाज की
उन सतहों का वैज्ञानिक विवरण है
जो निर्णय में नहीं होते,
बस परिणाम में पाए जाते हैं।

रेत को चूर करना
बहुत आसान है —
वह पहले ही
हज़ारों वर्षों से
गुरुत्वाकर्षण और उपेक्षा की
संयुक्त नीति का शिकार है।

पत्थर से
वह कहीं अधिक प्राचीन है,
पर उसे कोई इतिहास नहीं मिलता —
क्योंकि वह 'ठोस' नहीं है।

रेत को
कभी नहीं बुलाया गया
संगठन की टेबल पर।
उसे सिर्फ भरा गया
— नींव में,
जहाँ से आवाज़ें नहीं आतीं।

रेत का सबसे बड़ा संकट है
उसकी सहनशीलता —
जो अक्सर
दुर्बलता समझी जाती है।

जब कोई
उससे पूछता है —
"तुम्हारा अस्तित्व?"
तो वह चुप रहता है।
क्योंकि
उसने पहचान को
हर बाढ़ में बहा दिया है।

जिस दिन
कोई रेत से कहेगा
"मैं तुम्हें बचाना चाहता हूँ,"
वह मुस्कुरा देगा —
क्योंकि उसे पता है
कि उसे बचाने का अर्थ है
किसी और के नीचे दब जाना।

समझो रेत को —
तभी समझोगे समाज को।

रेत
न निर्माण करता है,
न विरोध।
वह बस प्रतीक्षा करता है —
कभी किसी काँधे की नहीं,
बल्कि
उस क्षण की
जब कोई उसे समझे
बिना उसे गूँथे,
बिना उसे बाँधें,
बिना उस पर चलें।

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