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वर्षा मैं शिक्षिका नहीं —जैसे व्यथित आकाश नेअब एक दस्तावेज़ हूँ,अधीर होकर झुकी धरती जिसे हर सप्ताहनवीनतम आदेशों की पीठ परसिलवटों मेंअपनी उँगलियों से करुणा उकेर दी हो।फ़ाइलों के नीचे दबा दिया जाता है।
न कोई उद्घोषकभी चाक से सपनों की रेखाएँ खींची थीं,न जयघोष अब एक्सेल शीट मेंभविष्य की प्रविष्टियाँ भरती हूँ —बस उपेक्षित धरा को पहुँचानी होउन बच्चों के नाम,एक मौन सांत्वना।जो अब भी अपना नाम ठीक से नहीं लिख पाते।
बरसाती स्नेह हर माह एक नई योजना आती है,नई भाषा में —उन झाड़ियों पर भी‘लर्निंग आउटकम’,‘इनोवेशन’, ‘प्रगति- सारिणी’जो पथरीली चट्टानों के अंक मेंपर कक्षा की ज़मीन वैसी ही है —अस्मिताहीन पल रही होती हैं। झुकी हुई छत,और बच्चों की सूनी, थकी हुई आँखें।
वह सींचती है वे आते हैं —सूखी पत्तियों कोअधपेट, भीगे पाँवों में धूल लपेटे हुए,जिन्हें तनुजीव भीकुछ तो स्कूल आने से पहलेआश्रय योग्य नहीं समझताघरों का बोझ ढोते हैं —न जूते, न लंचबॉक्स, न स्टेशनरी,बस मन में एक छोटा-सा सपना —"क्या मैं भी कुछ बन सकूँगा?"
उसकी हर बूँद कक्षा में वे घबराते हैं —जैसे किसी अज्ञात देवी पढ़ने से नहीं,अपने कुपोषित शरीर की अंजलि होझिझक से।वे नहीं पढ़ते पाठ्यपुस्तकों की पंक्तियाँ,जो बिना पूछेवे पढ़ते हैं दीवारों की दरारें, बिना चुनेसबको देती है समान अधिकार।पेट की चुभन,और माँ की आँखों में जमी खाली थाली।
वर्षा सरकारी योजनाएँ आती है हैं —कभी उद्दंड हवाओं के संग‘हर बच्चा सीख सकता है’,कभी मौन, धूसर बादलों में छिपकरमैं भी चाहती हूँ कि वे सीखें,और कभी यूँ ही —पर कौन समझाए आदेशों कोजैसे मन के किसी कोने सेकि यह भूगोल नहीं,कोई क्षमा चुपचाप झरने लगी हो।भूख का इतिहास है।
वह पूछती नहीं मिड-डे मील —पेड़ फल देगा या नहींजिसे पोषण माना गया,झील में कमल खिला कई बार शिक्षा का एकमात्र कारण बन जाता है।कुछ बच्चों के लिएस्कूल का अर्थ है या नहीं,—या मिट्टी में कीड़े हैं या नहीं।दो रोटियाँ।
वर्षा —मेरे लिएवह धर्म नहींजो फल की शर्त पर बाँटा जाए।वह ईश्वर हर दिन एक द्वंद्व है —जो सबसे पहलेपढ़ाना या मीटिंग में जाना,उन्हें जल देता हैपाठ तैयार करना याकाग़ज़ भरना कि कितने घरों मेंजिन्हें कोई नहीं पूछता।शौचालय हैं या कितनों के आधार बने हैं।
जैसे ईश्वर स्कूल चल रहा है — पहुँचता पर किसी ने नहीं देखाकि छत झुक चुकी है वहाँ भी,जहाँ नहीं दीवारों पर लिखे नारों का रंग उतर चुका है।‘बेटी पढ़ाओ’ की जाती प्रार्थना,दीवारों के नीचेनहीं जलाए जाते दीप,आज भी लड़कियाँजहाँ नहीं होती है आसकि कोई सुन रहा है।जल्दी घर लौट जाने की चिंता में बैठी हैं।
वर्षा —एक करुणाडिजिटल इंडिया की बात होती है,एक मौन न्यायपर बच्चों ने माउस नहीं छुआ।आदेश आया — “स्मार्ट क्लास चालू कीजिए”,मोबाइल से वीडियो चलाया —बच्चे चौंक गए।किसी ने पहली बारस्क्रीन में खुद को देखा। वे दया नहीं चाहते —चाहते हैं —सम्मान, संवाद, और एक स्वीकृति भरोसेमंद किताबजिसके भीतरउनका नाम सच्चाई से लिखा हो। “हर बच्चा आगे बढ़े” —यह वाक्य लिखते समयकभी सोचती हूँ,क्या कोई देखता हैकि जीवन सिर्फ समर्थ बच्चे किन रास्तों से आते हैं,नंगे पाँव या उधड़ी चप्पलों में। शिक्षा का नहींबजट हर साल बढ़ता है,असमर्थ पर पानी की टंकी ख़ाली है,और खेल का मैदानकाग़ज़ से बाहर नहीं आता। कभी-कभीप्रगति रिपोर्ट भरते हुएमैं झूठ का बोझ उठाती हूँ —“संतोषजनक” भरते समयमैं जानती हूँ —वे अब भी अधिकार जोड़-घटाना नहीं समझते। लेकिन ऊपर से फ़ोन आता है —डेटा सही और बेहतर दिखना चाहिए।मैं उसी व्यवस्था का भाग हूँजो शब्दों में सुंदर,पर ज़मीनी हकीकत मेंसंघर्ष का पर्याय है। और फिर भी —जब कोई बच्चा दोहराता है,“आपने जो कहानी सुनाई ,वो मुझे याद है।”तो टूटते हुए भीथोड़ा और जुड़ जाती हूँ। मैं शिक्षिका नहीं,संभावनाओं के दो किनारों के मध्य,मैं एक सेतु हूँबेशक डगमगाती हूँपर गिरने नहीं देती। मैं व्यवस्था की चुप्पी मेंएक मूक, अनसुनी,आवाज हूँ।
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