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|रचनाकार=कुमार कृष्ण
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|संग्रह=गुल्लक में बाजार के पाँव / कुमार कृष्ण
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<poem>
लाख कोशिशों के बाद भी
अपनी मज़बूत बाहों से
उसे नहीं रोक पाता
दरवाजे पर दिसम्बर
वह चली आती है चुपचाप
नंगे पाँव घर के अन्दर

ठंढ बदल देती है नींद और सपनों के तकिये
करती है पुनर्जीवित-
कथरी- पुआल का रिश्ता
ठंढ जानती है-
पानी को पत्थर में बदलने का जादू

रात भर रोते खेतों के आंसू
सूखते रहते हैं दिन-भर गेहूँ की पलकों पर

जनवरी के घर तक पहुँच कर
ठंढ कभी गुड़ तो कभी मूंगफली हो जाती है

उसे आता है जनवरी के दुपट्टे को-
कम्बल में बदलना
आता है पेडों की वर्दी उतारना

ठंढ और धूप का रिश्ता वैसा ही है जैसा-
तानाशाह और लोकतंत्र का

ठंढ हमेशा आती है सफेद कपड़ों में
वह आती है धुंध और कोहरे के रथ पर
हम छू सकते हैं उसकी बर्फीली देह

उसे सख्त नफ़रत है आग से
तभी तो लड़तीं हैं दोनों इस धरती पर
सौ दिनों तक दिन-रात चलता है यह युद्ध
परेशानी में गुज़ार देती हैं जनवरी-फरवरी-
दोनों बहनें

मार्च आता है अपने रंग-बिरंगे कपड़ों में
बसन्ती फूलों के साथ
वह आता है नयी आग लेकर
लौट जाती है ठंढ चुपचाप अपनी दुनिया में
बोरसी लड़ती है ठंढ से बार-बार
ठंढ समझा जाती है तानाशाही के मायने हर बार
ठंढ लोकतंत्र के जूते-
पता नहीं कहाँ छुपा जाती है।
</poem>
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