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10 जुलाई {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=वीरेन्द्र वत्स
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<poem>
नज़र नहीं है नज़ारों की बात करते हैं
ज़मीं पे चाँद-सितारों की बात करते हैं
वो हाथ जोड़कर बस्ती को लूटने वाले
भरी सभा में सुधारों की बात करते हैं
बड़ा हसीन है उनकी ज़बान का जादू
लगा के आग बहारों की बात करते हैं
मिली कमान तो अटकी नज़र ख़ज़ाने पर
नदी सुखा के किनारों की बात करते हैं
वही गरीब बनाते हैं आम लोगों को
वही नसीब के मारों की बात करते हैं
वतन का क्या है, इसे टूटने-बिखरने दो
वो बुतकदों की, मज़ारों की बात करते हैं
</poem>