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<poem>
ये उबलते हुए जज़्बात कहाँ ले जाएँ
जंग करते हुए नग़मात कहाँ ले जाएँ

रोज़ आते हैं नए सब्ज़बाग आंखों में
ये सियासत के तिलिस्मात कहाँ ले जाएँ

अमीर मुल्क की मुफ़लिस जमात से पूछो
उसके हिस्से की घनी रात कहाँ ले जाएँ

हम गुनहगार हैं हमने तुम्हें चुना रहबर
अब ज़माने के सवालात कहाँ ले जाएँ

सारी दुनिया के लिए माँग लें दुआ लेकिन
घर के उलझे हुए हालात कहाँ ले जाएँ
</poem>
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