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तुम जो आई ही नहीं
मेरी बाँहों में कभी, प्रियतमा !
प्रारम्भ से ही जैसे
खोया हुआ हो सबकुछ ।
जानता भी नहीं कि गीत कौन से
गाऊँ, जो प्रिय हों तुम्हें
हर अगले पल के ज्वार की
कोशिशें रोक दी हैं मैंने —
तुम्हें अब पहचानने की ।
 
चित्र वे सारे बसे मेरे
मन में गहरे कहीं
भूखण्ड, शहर, गुम्बदें और पुल
और अचानक मुँड जाते हुए रास्ते ।
 
वे सारी बड़ी जगहें
देवताओं के वास की हलचल भरी
उठती जो हैं ये मन में उफान जैसी
वह तुम ही तो हो, जो कभी मिलती नहीं मुझे ।
 
मेरी आँखों में बसा मेरा प्रिय बाग़ान
तुम ही तो हो
गाँव के घर की खुली खिड़की
तुम सहसा बेचैन मुझसे मिलने को ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुमन माला ठाकुर'''
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