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|रचनाकार=कुमार कृष्ण
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|संग्रह=गुल्लक में बाजार के पाँव / कुमार कृष्ण
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<poem>
बड़े होते बच्चे
अक्सर आते हैं नज़र दीवार पर
छोटी होती जाती है दिन-ब-दिन
बड़े होते बच्चों की दुनिया
वह बदल जाती है एक छोटे से अखरोट में

हंसते हैं बड़े होते बच्चे
पुरानी भाषा, पुराने खिलौनों, पुरानी किताबों,
पुराने लोगों पर

बड़े होते बच्चे
बहुत जल्दी सीख लेते हैं
इनसान को सामान में बदलने का जादू

सामान में बदला हुआ इनसान
हमेशा रखता है अपनी जेबों में
छोटे-छोटे चाँद, छोटे-छोटे सूरज
सही कहा था तुमने कवि
घर एक यात्रा है
यहाँ तमाम पहाड़
आग और पानी की चिन्ता में
काट देते हैं पूरी उम्र
एक दिन टंगे रह जाते हैं पहाड़ के बस्ते
टंगी रह जाती है प्यार की पतंग
सपनों के रंग-बिरंगे छाते
ठहाकों से भरे लोहे के ट्रंक
कभी नहीं खोलते बड़े होते बच्चे
हर मौसम को एक घूंट में पी जाते हैं
बड़े होते बच्चे।
</poem>
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