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खुशी / कुमार कृष्ण

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|संग्रह=गुल्लक में बाजार के पाँव / कुमार कृष्ण
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<poem>
एक उम्र गुज़ार दी तुमने मुझे ढूँढने में
मैं जब भी मिली
मिली आधी-अधूरी
थोड़ी परिवार में थोड़ी दरबार में
थोड़ी क़िताब में थोड़ी ख़्वाब में
थोड़ी प्यार में थोड़ी त्यौहार में
थोड़ी ज़ेवर में थोड़ी कुर्सी के तेवर में
थोड़ी धन में थोड़ी मन में
थोड़ी मकान में थोड़ी मुस्कान में

तुम नदियों, झरनों, फूलों के रंगों में भी
ढूँढते रहे मुझे
ढूँढते रहे मंदिर की घंटियों
ढोल नगाड़ों में

मैं हर रोज़ बार-बार मरी
मैं आई मेले के झूलों में बैठ कर तुम्हारे पास
त्योहारों में तवे पर जला कर अपनी हथेलियाँ

मैंने बार-बार बदली मौसम की ख़ुशबू
मैं बार- बार गिरी आंखों से धरती पर

मैं थी सोने के पाँव वाली तितली
मैं जितनी बार उड़ी तुम्हारे पास से
तुम दौड़े उतनी ही बार
मेरे सोने के पाँव चुराने

मुझे पूरी तरह पकड़ने की कोशिश में
तुम्हारी अंगुलियों में चिपके रह गए
बस तितली के पंख

आधी-अधूरी ही सही
मैं जीवन का, जीने का आधार हूँ
छोटे-छोटे सपनों का आहार हूँ
मनुष्यों के अन्दर छुपा बाज़ार हूँ।
</poem>
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