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दुविधा / कुमार कृष्ण

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|संग्रह=गुल्लक में बाजार के पाँव / कुमार कृष्ण
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<poem>
पिघलता हुआ लोहा
बार बार पूछता है आग से
क्या तुम बता सकती हो
किस रूप में होगा मेरा पुनर्जन्म
क्या फ़िर से बनना होगा मुझे
चाकू, हंसुआ, कुल्हाड़ी, तलवार
मैं फ़िर से नहीं चखना चाहता
किसी ख़ून का स्वाद
नहीं काटना चाहता सपनों के पंख

तुम कारीगर के कान में कह दो
वह मुझे बना डालें एक मज़बूत अरगला

या फ़िर बदल दें किसी बांसुरी में
या हल के फाल में

नहीं दोस्त सदियों पुराना है मेरा तुम्हारा रिश्ता
मुझे नहीं आता बोलना
जिस दिन आई मैं धरती पर
उसी दिन काट डाली राजा ने मेरी जबान

मुझे आता है जीवन देना, जीवन लेना
डरने वाले,डराने वाले दोनों आते हैं मेरे पास
दोनों नहीं समझ पाते मेरे भीतर की आग
मेरा राग
मैं विश्वास और विनाश दोनों की देवी हूँ

मुश्किल बहुत मुश्किल है
धरती को देवताओं की गिरफ्त से
मुक्त कर पाना
जब तक रहूँगी मैं इस धरती पर
तब तक देती रहूँगी तुम्हें जन्म बार-बार
तब तक रहूँगी रोती अपनी आग पर।
</poem>
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