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<poem>
ऐ मेघा,
तुम सावन से ही पहले
घिर-घिर घर मेरे आए

खेतों में बरसाया सोना, ठीक
पर अपनी चुहलबाज़ियों से
बाज़ नहीं तुम आए

नया-नया मिट्टी का चूल्हा
रात-रात में तुमने आन गलाया
तुम कहकर क्‍यों ना आए?

बरसे तुम, बरसे तो ठीक
ये मरजानी हवा साथ क्‍यों लाए?

छान उड़ी पोखर में डूबी
मेरे दुःख में बोलो तुम क्‍यों,
घुमडु-घुमड़्‌ मुस्काए?

बुधिया का नया काठ का घोड़ा
वो देखे तो पली खून बढ़ जाए
तुम कोई बालक हो?
इतना खेले चढ-चढ़ उस पर
रंग निकल सब आए

रोने पर उसके तुम, बेशर्मी से उसको
घड़ड़-घड़ड़ हड़काए
बाज़ नहीं तुम आए
मेघा बाज़ नहीं तुम आए

ओर भी झाँकूँ जाकर घर में
क्या-क्या तुम कर आए
बाज़ नहीं तुम आए।
-0-
</poem>