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बाबा उस गुरु पूर्णिमा कोसूरज के छिप जाने औरचाँद के आने से पहलेसाँझ के धुधलके की ओट लेकरचुपचाप छोड़ भागे थे तुम शरीर अपनाजैसे छोड़ जाता है साँप केंचुलीबन जाता है पुनः चुस्त फुर्तीलाक्या तुम भी छोड़ गए थे उस साँझआँगन वाली खाट पर सदा के लिए अपनी थकानक्या तुम्हें पता है बाबातुम्हारे जाने ने मुझे बना दिया था मुखिया घर कापगड़ी पहनाकर रख दिए थेघर के सारे बोझ मेरे सिर परउसी दिन से मैंने भी शुरू किया था देखनाबड़के का सिरजिस पर बँधनी थी पगड़ीमेरे थक जाने के बादसोचता हूँ बदला क्या?सिर बदला, पगड़ी बदली; पर यथावत् रहा मुझमें तुम्हारा होनाजैसे तुममें तुम्हारे पिता काऔर उनमें उनके पिता का होनाजन्मना, बढ़ना-बुढ़ाना, थक जानाओर आँगन वाली खाट परफिर एक केंचुली का रह जाना। -0-
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