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|रचनाकार=आन्ना अख़्मातवा
|अनुवादक=अनिल जनविजय
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<poem>
मैं आई थी कवि से मिलने उस दिन घर उनके 
दोपहर का समय था, रविवार का था उजाला
काफ़ी बड़ा कमरा था और फैला था सन्नाटा
खिड़की के बाहर झर रहा था, गिर रहा था पाला

धूसर-झबरे धुएँ का घना कोहरा सा था छाया 
शहतूत-गुलाबी सूरज मेरे मन को बेहद भाया 
कवि चुप थे, शान्त थे, मौन कर रखा था खुदको
ख़ामोशी से ताक रहे थे, देख रहे थे मुझको

आँखें हैं उनकी ज्योतिर्मय, दिव्य, ललित, मनोहर
सबके मन में वो बस जाएँ, औ’ फिर  घहरें - ठहरें
पर बेहतर होगा, सतर्क रहूँ मैं उनकी दीठ धरोहर
झाँकूँ नहीं कभी मैं उनमें, और न उतरूँ वहाँ गहरे

बातचीत जो की थी उनसे, वो याद सदा रहेगी
था धूसर-झबरा कोहरा और दिन था वो रविवार
मटमैला-सा घर था उनका, बहुत ऊँची सी दीवार
निवा नदी किनारे, वहीं था कहीं सागर का द्वार

जनवरी  1911.

'''मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''

'''लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी में पढ़िए''' 
Анна Ахматова
Я пришла к поэту в гости

Я пришла к поэту в гости.
Ровно полдень. Воскресенье.
Тихо в комнате просторной,
А за окнами мороз

И малиновое солнце
Над лохматым сизым дымом...
Как хозяин молчаливый
Ясно смотрит на меня!

У пего глаза такие,
Что запомнить каждый должен;
Мне же лучше, осторожной,
В них и вовсе не глядеть.

Но запомнится беседа,
Дымный полдень, воскресенье,
В доме сером и высоком
У морских ворот Невы.

1911. Январь
</poem>
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