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रविवार को 17:23 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चरण जीत चरण
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<poem>
अगर तू बज़्म से तन्हा उठेगा
मुसलसल आहों का दरिया उठेगा
उठे इक दूसरे के पास से हम
कुछ ऐसे कल कि कोई क्या उठेगा ?
तू मेरे साथ थोड़ी दूर चल तो
यहाँ हर सिम्त इक जलवा उठेगा
कोई गिरवी रखेगा ज़िन्दगी को
किसी का ब्याज पर पैसा उठेगा
मैं तेरी अंजुमन से उठ तो जाऊँ
मगर उठते ही इक क़िस्सा उठेगा
सभी को खल रही है शम्अ लेकिन
बुझाने को जो बोलेगा उठेगा
जला सिगरेट दो कश मारने दे
कोई उल्फ़त का अफसाना उठेगा
</poem>