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|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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बेवजह मुस्कान टुकड़ों में बंटी मोनालिजा
क्या बताएँ ज़िन्दगी कैसे कटी मोनालिजा
रंग थे, शोखी थी, उड़ने की वजह मौजूद थी
जिन्दगी यूं थी कि तितली, परकटी, मोनालिजा
सिर्फ इक मुस्कान पर सदियों बहस चलती रही
शख्सियत सब दानिशों की सरकटी मोनालिजा
थी बड़ी रुतबों की बातें, तालियाँ बजतीं रहीं
गुरबतें थीं, सिर्फ़ कोनों में सटी मोनालिजा
</poem>