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सोमवार को 17:16 बजे {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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|संग्रह=
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<poem>
दस दिन नौबत ख़ूब बजाई जाने दे
पीछे से आवाज़ लगाई, जाने दे
सूरज की वेबसाइट में भी सपने हैं
अब तक नाहक नींद गंवाई, जाने दे
चुटकी नींद चुराई, पर्चा दर्ज हुआ
नाम इसी का लोक भलाई जाने दे
दे थोड़ा आकाश, धूप का इक टुकड़ा
मत कर मेरी जगत हंसाई, जाने दे
बिछड़े जोगी का मिलना अब नामुमकिन
पर जोगन को समझ न आई, जाने दे
</poem>