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सोमवार को 17:16 बजे {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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|संग्रह=
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<poem>
यारो कुछ तो वक़्त लगेगा
धीरे-धीरे घाव भरेगा
अभी रूह में सन्नाटा है
अभी परिंदा पर तोलेगा
सहमा-सहमा-सा मौसम है
धीरे-धीरे फूल खिलेगा
भंगड़ा-गिद्धा भूल गए थे
हौले-हौले पांव खुलेगा
लोग वही हैं वही हवा है
धीरे-धीरे डर उतरेगा
बरसों-बरसों शव ढोए हैं
अब दिल सदमों से उबरेगा
</poem>