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सोमवार को 17:17 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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<poem>
निपट अजनबी से लगते हैं ये जाने पहचाने लोग
लेकिन दिल के पास लगे हैं अक्सर कुछ बेगाने लोग
दर्द की झीलें बदल गई हैं पथरीली चट्टानों में
दिल तो वादा-माफ गवाह है इतनी बात न माने लोग
जिंदादिल इंसान जिदंगी जीने का हक़ रखते हैं
बार-बार यह कह कर ख़ुद को लगते हैं भटकाने लोग
घर-घर अलख जगा कर ईसा सबसे सूली मांग रहा है
फिर कैसी घबराहट, क्यों कर लगते हैं कतराने लोग
सुनते हैं कल रात किसी ने हत्या कर दी सूरज की
सारा शहर फ़रार हुआ बस शेष रहे दीवाने लोग
</poem>