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सोमवार को 17:18 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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<poem>
रात मेहमान बना याद का सहरा कोई
जैसे पर्वत से उतर आया हो दरिया कोई
हम से सपनों के फटे वस्त्र उतारे न गए
वैसे सूरज ने किया कुछ तो था चर्चा कोई
जिंदगी सर्द हक़ीक़त है बुरा मत मानो
भोग कर देख तो लो दर्द का लम्हा कोई
आप चाहें तो किनारों पर भी जी सकते हैं
छेड़ कर बहस का मुद्दा यूं ही गहरा कोई
आप किस शख़्स की अब खोज में यूं गुमसुम हैं
भीड़ तो रोज़ कुचल डाले हैं चेहरा कोई
</poem>