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<poem>
सुनते हैं कल रात चांद को कोई देकर ज़हर गया है
शायद अक्ल सम्भाले आसन, वक़्त ज़रा-सा ठहर गया है

मार्क्स महोदय के देहाती दफ़्तर में जाकर दस्तक दी
पता चला वह कुम्भ नहाने किसी बड़े से शहर गया है

हमने ख़ुद देखे भोगे हैं, तुम जिनको सपने कहते हो
इन आइनों पर न जाने कौन यह बरपा क़हर गया है

खुद वह रात-रात भर चंदा की किरणों में रहा नहाता
मेरे लिये छोड़कर लेकिन थकी हुई-सी सहर गया है

उसको पता नहीं था शायद, अपना तो बस राज़ यही है
उतनी उम्र बढ़ी है, जितना कोई देकर ज़हर गया है
</poem>
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