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सोमवार को 17:23 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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<poem>
दिये की लौ जो हवाओं में थरथराती है
जिन्दगी मौत से आगाह हुई जाती है
अक्सर आबाद इलाकों में ही दम घुटता है
मरघटों में तो बड़ी ठण्डी हवा आती है
कैसी आवारा सियासत है जो हर शाम ढले
झोंपड़ी छोड़ के महलों में चली आती है
हमने सूरज को भी चंदा को भी बिकते देखा
दर्द के गाँव से बाज़ार-सी बू आती है
हमने यादों को संजोया भी सलीके से, मगर
जिन्दगी फ़िर भी बिखरती ही चली जाती है
गैर से पूछते हैं अपने ही घर का रस्ता
एक आवारा गज़ल यूं भी तो भटकाती है
</poem>