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|रचनाकार=चन्द्र त्रिखा
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<poem>
आने वाले कल की फ़िक्र न कोई हमें सताए बाबा
बीते कल का प्रेत अभी तक जाने क्यों मंडराए बाबा
सत्य, अहिंसा, नारेबाज़ी, कभी भूख हड़तालें कीं
सिर्फ भूख से ध्यान हटाने क्या-क्या ढोंग रचाए बाबा
तुम्हें नहीं मालूम यहाँ जिन्दा रहना कितना मुश्किल है
किसको, कितने जख़्म दिखाएँ, क्या-क्या राज़ बताएँ बाबा
मुर्दे सीख गए हैं यारो तौर तरीके जीने के
पर जिन्दा इंसान रोज़ ही अपनी चिता सजाए बाबा
सुनते हैं सूरज की किरणें सब चुनाव में हार गई हैं
अब उसके रथ पर अंधियारा बैठा शंख बजाये बाबा
धरती पर ना आसमान पर, नालियों ना बाज़ारों में
जगह नहीं है, मन की धूनी जाकर जहाँ रमाये बाबा
कहो क़यामत कब आएगी, कब तक बंदनवार सजाएँ
वैसे ही थोड़ा बतला दो, मन को तो समझाएँ बाबा
</poem>