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<poem>
अब सुनहरे ख़्वाब से आँखों की दूरी है बहुत
चार रोटी काम के बदले मजूरी है बहुत
जान कर भी झूठ का सिक्का है चलता अब यहाँ
बोलती सच ये जुबाँ भी बे-शऊरी है बहुत
पा रहा हर शय वह क्योंकि एक खूबी उसमें है
उसके लहजे में शुरू से जी हुज़ूरी है बहुत
शेर का मजमून होता ग़ौर के क़ाबिल मगर
शेर कहने का सलीक़ा भी ज़रूरी है बहुत
लिख चुका हूँ जो हुआ है ज़िन्दगी में अब तलक
पर अभी मेरी कहानी तो अधूरी है बहुत
</poem>
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