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|रचनाकार=देवेन्द्र भूपति
|अनुवादक=राधा जनार्दन
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<poem>
वानप्रस्थ के दिनों में अतिथि
दूर देशों की
यात्रा पर जाते हैं ।
पर्वतीय भेंडों को पारकर
पटरियाँ जब गुफ़ाओं से
त्वरित गति से यात्रा करती हैं
तब गृहस्थी का तज लिया गया ब्रह्मचर्य
किंचित् संन्यास ले लेता है !

सफ़ेद मेघों से घिरी पर्वतीय चोटियाँ
आत्मा के प्राणदायी लक्ष्यों को
ईर्ष्या से ढँक देती हैं

बर्फ़ से पिघलती नदियों में
सूर्य के स्पर्श से वंचित ज़मीनों का
सीधा सादा सत्य हमारे कण्ठ से जुड़ जाता है

युवावस्था के बाद के दिन
ज्ञान की परिपक्वता के दिन
उन विशाल वृक्षों के समग्र
मानवआयु की अकालावस्था !

… इस ब्रह्माण्ड के समग्र एक बूँद अश्रु की
बर्फ़ से निकली पहाड़ी नदी में
मिलाती है, शेष कचरा या अवशिष्ट !

'''मूल तमिल से अनुवाद : राधा जनार्दन'''
</poem>
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