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|रचनाकार=मानबहादुर सिंह
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<poem>
औरत होना क्या होता है
एक औरत अपने बारे में
क्या मेरा सोचना सोचती है ?
सुना तो नहीं किसी औरत से
औरत होने का गिला।

औरत होने का सुख क्या होता है ?
किसी औरत के बहुत क़रीब होकर भी
नहीं जाना जा सकता
उसके औरत होने का मर्म ।

उसकी आवाज़
देहयष्टि
अंगों की सिहरन, गुदगुदी, जुगुप्सा
पाकर कही तो पुरुष
भोगता है अपने होने का अर्थ ।

जब कोई औरत
अपनी कमनीयता से
विकल करती है किसी पुरुष के प्राण
क्या इसी विकलता में करती है अपना एहसास ?

वह दर्द की चट्टान तोड़
जनती है बच्चे
इसी औरत होने के अर्थ
क्या कभी बूझ पाएगा पुरुष
क्योंकि पुरुष के पास कुछ भी नहीं है
इस दर्द के समान ।

दो अनुभवों के ध्रुवान्तों के बीच
बह रही जीवनमय अंतःसलिला
बिछलती छवि लहरियों की
अनगिन कलाएँ लिए
काल के आर-पार ।
</poem>
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