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नब्‍ज / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह

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| रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
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कहते हैं.
अपना देश बहुत खूबसूरत है।
उसका ज़र्रा-ज़र्रा अपने बुलन्द हौसलों से रौशन -
जवान है।
उसका हर कण पौरुष का हिमालय है, जिससे गंगा
निकलती है। और वह जहाँ मुड़ती है, वहाँ या तो त्रिवेणी है
या काशी है। वहाँ कोई हिन्दू नहीं - मुसलमान नहीं है।
पारसी और ईसाई नहीं है। (सिख नहीं है।)

ये सभी कौमें या तो जाकर कहीं मिल गई हैं या मिट गयी हैं।
आज वहां सिर्फ शहीदों की एक कौम बच गई है।

कभी यहाँ-वहाँ कुछ बर्फानी घाटियाँ थीं- पठार का धीरज लिये
बियाबान और रेतीली बस्तियाँ थीं। उनके सीमांतों पर जगने
वाली लौ

मुस्काने के पहले ही गुल हो जाती थी। और वहाँ आसमान की आँखें
हरियाली और फूल देखने के लिये तड़पती रह जाती थीं

मगर, वहां आज हमारे जवानों ने अपने खून से सींचकर
कुछ बिरवे लगा लिये हैं जिन पर शहादत के फूल खिले
रहते हैं। और वे घाटियां और बस्तियाँ उनकी खुश-बू से दिन-रात
गमकती रहती हैं... युद्ध की ज्वालाओं से घिरी होने पर भी
यहां अमन के चिराग की रोशनी कभी मद्धिम नहीं पड़ती।
तिरंगे के नीचे
पूजा, नमाज, और प्रार्थना सभी चुप हैं।
अविजित और एक बने रहने का संकल्प गहरे मोह से
टकराता रहता है।
(आदमी अपना खोया हुआ अर्थ पाने में लगा है।)
सुहाग की रात
शरमाती हुई दुल्हन से भी
हसीन लगने वाली कुलू-कश्मीर की सुरम्य घाटियां हैं,
जिनकी आंखों में / कम्पित अधरों के समान
बिना बोले बोल जाने वाले अनेक अनेक सपने तैरते रहते हैं...
और फलों से झुकी हुई जिनकी डालियों पर
थक कर जरा बिलम गयी शबनम के सामने
बड़ी-बड़ी गाथाएँ हैरान रह जाती है
महाबलिपुरम् और कन्याकुमारी को लहरें हैं –
मिलते-मिलते बिछुड़ गये हृदय की अशान्ति की तरह –
जो यूनान और मिश्र और जावा और बाली और चीन के तटों
को छूकर
आने वाली लहरों से बेभरम होकर मिलती रहती हैं...
नर्मदा और ताप्ती, और गोदावरी-कृष्णा-कावेरी की धारायें हैं -

खुले मातृत्व की तरह -
जो आसमान को भी बाँहों में समेट लेने में
गंगा-यमुना और सिन्धु-ब्रह्मपुत्र से पीछे नहीं रहतीं
हल्दीघाटी है-
स्वतंत्रता के प्रतिज्ञा-पत्र पर एक अमिट हस्ताक्षर की तरह
जगी पड़ी
और वहीं बोधि वृक्ष भी है - वैशाली है - नदिया है

कौन कहता है
कि हमारी धरती वही नहीं है-
हमारा आसमान वही नहीं है-
हमारे स्वप्न, संकल्प, और मंत्र वे ही नहीं हैं !
लगता तो है
कि सब वही-का-वही है !

कहते हैं,
हमारा देश कभी बहुत सुखी-संपन्न था –
दुनिया की आंखों में सोने की चिड़िया था !
और संपन्न वह आज भी क्या कम है !
भूमि वही है - सोना उगलती है।
नदियों मैदानों में जा-जाकर अन्न बाँटती रहती हैं।

आसमान कभी बाँले नहीं मूंदता - तत्परता से
मेघों को जोहता रहता है !!
सूखे और पाले का हरियाली के सामने कोई वश नहीं चलता।
आज भी,
हमारे ताले की कुंजी
कुबेर के हाथ है। - और यह
सच से भी कहीं ज्यादा सच है
कि उनकी दियानत के साये में अरबों का सोना गड़ा पड़ा है –
हीरे और मोती के ढेर हैं।

इसीलिये,
जब कहते हैं –
बंगाल में कभी अकाल पड़ा था,
और लाखों लोग
कुत्तों और सियारों,
और गिद्धों और कौवों की मर्जी पर
रास्तों-चौराहों-फुटपाथों पर सोये पड़े थे –
सहसा विश्वास कर लेते नहीं बनता।
यह यकीन नहीं होता
कि केरल में भूख से आतुर और क्षुब्ध लोगों ने
अन्न के गोदामों पर धावा बोला होगा –
या दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता और मद्रास जैसे नगरों की फुटपाथों पर
रात में, भूखे-नंगे लोगों की बेपनाह बस्तियाँ फैल जाती होंगी-
या,
यहाँ-वहाँ तंग दरबों में
कई-कई लोग
कबूतरों से भी बदतर हालत में
घुट-घुट कर मरते होंगे।

इस बात पर यकीन कर लेने में कितना दर्द होता है
कि हमारे बीच दालमंडी और सोनागाछी
आज भी गुलजार रहती हैं।
और सभ्यता के नाम पर
जो होटल और नाइट-क्लब रात-रात भर जगे रहते हैं,
वहां सोना
आदमी को खुश-बू और शराब में डुबा कर
कुछ और ही रूप दे देता है !

जहां
इतने-इतने फौलादी हाथ
और आला दिमाग
देश का नक्शा बदलने में लगे हों,
वहाँ
एक गरीबी और पर-आसरे का नक्शा नहीं बदले !

मैंने
अपने देश की समृद्धि और सुरुचि संपन्नता से
इस गरीबी और तंगहाली का मेल बैठाने में
कई-कई रातें काट दी हैं,
और मुझे कोई रास्ता नहीं मिला है।

कहते हैं-
(और मेरी आँखें भी देखती हैं-)

हमारा देश भूखा है, नंगा है।
उसकी स्वतंत्रता को
औरों की सहानुभूति और सहायता की जरूरत है,
तो लगता है
कि हमारी भाषा भी नंगी हो गयी है,
और बेअख्‍त‍ियारी में
हमने उसकी जबान काट डाली है।
- फिर, कोई कुछ भी कह सकता है.
और यह 'कुछ भी'
और कुछ हो या न हो, मगर झूठ नहीं हो सकता।

(खुदकुशी पर उतारू व्यक्ति के ठीक सिर पर बत्ती जलती रहती है,
और उसे लगता है कि वह अंधकार के दरिया में डूबा जा रहा है।)

मुझे अपने देश से प्यार है।
और मेरा हौसला
उसकी आंखों में नूर बन कर चमकते रहने का है।

मगर,
कुछ और भी हैं जो वतनपरस्ती (?) के जोश में
गर्द उड़ाये रहते हैं,
और मेरे जैसे हजार-हजार नम-आँख लोग
उसी गर्द के नीचे दम तोड़ते रहते हैं।
और देश-

एक अन्धकार का जाल काट लेने के बाद
फिर दूसरे अन्धकार के 'टापे' में पड़ जाता है।
सूरज उन लोगों के लिये चमकता है
जिनकी आँखों की रौशनी गयी नहीं रहती है।

(२)

मैं अपनी ही जमीन पर बेगाना बन कर घूमता रह जाता हूँ।
रात ढलने लगती है
तो आ कर अपने कमरे में कैद हो जाता हूँ।
बीवी-बच्चे सब सोये रहते हैं।
और मेरे लिये कहीं कोई नहीं होता।
कहीं दूर
कोई शोर
ऊंघता-सा लगता है।
पास की कोई आवाज सपनाने लगती है।
मेरे और मेरी बीबी के बीच
एक गहरी खामोशी
थक कर लेट जाती है।
मेरे लिये यह स्थिति बिलकुल असह्य हो जाती है ..

और ऐसी असह्य घोर यंत्रणा की स्थितियाँ
कई-कई होती हैं।
मैं घबड़ा कर चीखना-चिल्लाना चाहता हूँ
कि कोई आकर
मुंह पर
हाथ रख देता है।
टटोलता हूं
तो वहां कोई नहीं, वहीं अन्धकार होता है
जो जब कभी आत्मीयता का दावा करता है,
बदल कर 'सूनापन' हो गया रहता है।
मेरे अन्दर उठे कई-कई प्रश्न
उस सूनेपन की चट्टान से टकरा कर
चूर-चूर हो जाते हैं।

फिर,
मैं कमरे से बाहर निकल गया रहता हूँ:

धरती पर खड़े-खड़े सारा-का-सारा आसमान
समेट लेना चाहता हूँ
तो बाँहों में
कभी सड़क किनारे खड़ा यह लैम्प पोस्ट
तो कभी वह दरख्‍त आ जाता है।
- उस वक्त मुझे हंसी आती है।
और फिर, वहाँ भी
और कोई नहीं, वही सूनापन
मुझे
ठगा-ठगा-सा देखता रहता है।

इसी तरह,
देर-देर तक अन्धकार से भी जूझना पड़ता है।
कभी वह हार जाता है।
और कभी मुझे हारना पड़ता है।

और कभी-कभी,
सूरज बीच ही में उग आता है -
और मेरी आंखों के सामने
अणु-विस्फोट के तुरत बाद के
हिरोशिमा और नागासाकी का चित्र खड़ा रहता है...
या कभी कहीं कोई चूल्हा होता है- धुएँ में ओझल होता हुआ,
और उससे जरा हटकर अलग बैठे हुए कुछ बच्चे
उसे टकटकी लगाकर देखते रहते हैं ...
या कभी किसी शिशु के रोने की आवाज सुनायी पड़ती है,
और चौंककर देखता हूँ
तो आँख
अस्थि-शेष किसी औरत पर पड़ती है -
गिद्ध
जिसकी आँखें छोड़े रहते हैं,
और उसकी अंतड़ी खींचने में लगे रहते हैं...

या कभी कुछ बूचड़
मिमियाती बकरियों,
और रम्भाना भूल गयी गायों के झुंड को
घेरकर
'स्लाटर हाउस' की ओर बढ़ते रहते हैं -
(और उनके चेहरे पर ऐसा-वैसा कोई भाव नहीं रहता)
या कभी कोई और ही चीख
चेतना को चीरकर निकल जाती है।
मुड़ता हूँ
तो सामने कोई लड़की पड़ती है.
जिसे छोड़कर
कुछ लोग
अभी-अभी
भाग गये रहते हैं ... और वह,
अपने कपड़े पर लगे खून के ताजे दाग छिपा पाने में असहाय,
मुंह हाथों में छिपाकर
वहीं
औंधी पड़ी रहती है ...
एक ही हकीकत कई-कई सूरतों में प्रकट होती है।
मुझे
कई-कई जिन्दगी जीने
और कई-कई मौतें मरने के लिये
विवश करती हुई।
और मैं यह भुला देना चाहता हूं,

कि मेरा अपना कोई जन्म-स्थान है।
और उस स्थान पर खड़ा कोई घर
मेरे इंतजार में,
साँस रोके,
मेरे रास्ते की और टकटकी लगाये रहता है...

खास कर तब,
जब मेरे पांव के नीचे की धरती खिसक गयी रहती है,
और आसमान
बड़ी बेरहमी से
मेरे ऊपर अपना सारा-का-सारा बोझ छोड़ दिये रहता है ...
(शिथिल होती हुई मेरी चेतना से
सिर्फ उसका अट्टहास टकराता रहता है...)

उस समय मेरे लिये अपना कोई देश नहीं होता।

तब तक,
मेरे गाल पर
खूब खींचकर कोई तमाचा जड़ देता है।
और मैं
स्वप्न-सी स्थिति से सहसा बाहर आ गया रहता हूं
देश की मिट्टी
मुट्ठी में होती है,
जिसे बार-बार चूमता हूँ –
और आंसू से तर करता रहता हूँ।
और देखता हूँ
कि वहां अकेले मैं ही नहीं,
लाखों और भी हैं,
मगर जिनकी धमनियां बेमौके सर्द पड़ गयी हैं
(और इसीलिये,
वे सब उसके सामने
आज शर्म-से सिर झुकाये
खड़े हैं!)

एक बेपनाह आवाज –
मेरी चेतना की सुनसान गलियों में –
यहाँ से वहाँ तक भटकती रहती है ...
मेरी जान खाने पर पड़ी है।
और मैं उससे पीछा छुड़ाकर कहीं भाग जाना चाहता हूं –
कहीं भी !
और कहीं भी मुझे कोई अपना नहीं मिलता !
जो परिचित हैं वे भी अपरिचित की तरह
घूरने लगते हैं...
उनकी आँखों से
कई-कई प्रश्न
तीर की तरह छूटकर
मुझे बेध देते हैं -
जबकि मेरे लिये सबसे बड़ी मुसीबत यह है
कि मैं डूबते हुए नहीं,

हमेशा उगते हुए सूरज को देखता हूँ...
अन्धकार में
गर्क
हुआ जाता हूँ,
फिर भी
(एक दिन)
उसके सर पर पाँव धर कर
चलने का हौसला रखता हूँ ।

</poem>
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