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15 सितम्बर {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह 
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यह गेहुमन है। 
कभी इस घर में ढुकता है 
तो कभी उस घर में, 
और भीतर बाहर तहलका मच जाता है -
आदमी पर टूट पड़ता है आदमी 
और नर-संहार शुरू होता है।
आदमी को 
गेहुमन की जगह खड़ाकर 
क्यों देखते हो ?
आदमी गेहुमन नहीं होता।
गेहुमन 
आदमी और आदमी में 
भेद नहीं करता -
उसका ज़हर 
सबके अन्दर 
समान रूप से उतरता है।
गेहुमन को 
ठीक से पहचानो ।
और जब उसे मारना हो, 
घायल कर मत छोड़ो -
सिर को भी कुचल दो ।
घायल गेहुमन और खतरनाक हो जाता है। 
११ अक्तूबर '८६
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