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| रचनाकार= कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
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यह गेहुमन है।
कभी इस घर में ढुकता है
तो कभी उस घर में,
और भीतर बाहर तहलका मच जाता है -
आदमी पर टूट पड़ता है आदमी
और नर-संहार शुरू होता है।

आदमी को
गेहुमन की जगह खड़ाकर
क्यों देखते हो ?

आदमी गेहुमन नहीं होता।

गेहुमन
आदमी और आदमी में
भेद नहीं करता -
उसका ज़हर
सबके अन्दर
समान रूप से उतरता है।

गेहुमन को
ठीक से पहचानो ।

और जब उसे मारना हो,
घायल कर मत छोड़ो -
सिर को भी कुचल दो ।

घायल गेहुमन और खतरनाक हो जाता है।

११ अक्तूबर '८६
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