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नशा / नासिरा शर्मा

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खोलती हूँ कैबिनेट, उठाती हूँ ख़ाली गिलास
चाहती हूँ भरना उसे पुखराज
या फिर
याक़ूत के रंग की शराब से
डालना चाहती हूँ बर्फ के क्यूब
हल्के से हिलाते हुए

लेना चाहती हूँ सिप धीरे-धीरे
भूल जाना चाहती हूँ तल्खियाँ बेशुमार
रहना चाहती हूँ सुरूर में लगातार
अफ़सोस!
कैबिनेट की बोतलें हो चुकी हैं ख़ाली सारी

रात ढल चुकी है और मयख़ाने होंगे बंद
ठेके सूने हो गए होंगे और भट्टी होगी ख़ामोश
लत ऐसी लग गई है नशा करने की
भोर से पहले
नींद आयेगी नहीं बिन पिए
अब मुझे बनानी पड़ेगी शराब
लिखनी होगी फिर नई किताब कोई ।
</poem>
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