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चलो चलते हैं ग़ाज़ा…
चलो भूख के क़ाफ़िले को देखने चलो
जहाँ बच्चे फिर रहे हैं लावारिस खंडहरों के बीच
ढूँढ रहे हैं खोये हुए माँ - बाप, दादा-दादी, बहन-भाई को
जो मलबे के नीचे दबे दम तोड़ चुके हैं
जो ज़िंदा हैं वह खा रहे हैं घास
कट चुके हैं उनके ज़ैतून के दरख़्त दादा के लगाये
सूख गई हैं अंगूर की बेलें,अनार के पेड़
चलो बहुत रोमांचक रहेगा अपने समय के होलोकास्ट को देखना
एक नए रंग व रूप में, अत्याचार के तकनीकी बारूद में
चलो, ‘दी पियानिस्ट’ के दृश्यों को दोहराने
इस काल के चश्मदीद गवाह बनने।
</poem>
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